बंटवारे के बाद क्या हुआ,हालातों ने कैसे मजबूर कर दिया था
न जाने क्यों हमें रह-रह के ये महसूस होता है, कफ़न हम लेके आए हैं पर जनाज़ा छोड़ आए हैं
गुज़रते वक़्त बाज़ारों से अब भी ध्यान आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं।
कहां लाहौर को हम शहरे-कलकत्ता समझते थे, कहां हम कहके दुश्मन का इलाक़ा छोड़ आए हैं। अभी तक हमको मजनूं कहके कुछ साथी बुलाते हैं, अभी तक याद है हमको कि लैला छोड़ आए हैं। मियां कह कर हमारा गांव हमसे बात करता था, ज़रा सोचो तो हम भी कैसा ओहदा छोड़ आए हैं। वो इंजन के धुएं से पेड़ का उतरा हुआ चेहरा, वो डिब्बे से लिपट कर सबको रोता छोड़ आए हैं। अगर हम ध्यान से सुनते तो मुमकिन है पलट जाते, मगर ‘आज़ाद’ का ख़ुतबा अधूरा छोड़ आए हैं। वो जौहर हों,शहीद अशफ़ाक़ हों, चाहे भगत सिंह हों, हम अपने सब शहीदों को अकेला छोड़ आए हैं। हमारा पालतू कुत्ता हमें पहुंचाने आया था, वो बैठा रो रहा था उसको रोता छोड़ आए हैं
मुनव्वर राणा साहेब ने इन लाइनों से जिस दर्द को बयां करने की कोशिश की है वो इससे कहीं बड़ा है. वाकई 15 अगस्त की सुबह वो सुबह नहीं रही होगी जिसके लिए देश के युवाओं ने अपना सबकुछ न्यौछावर किया था. भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, आज़ाद ने इस भारत के सपने तो नहीं देखे होंगे. सोचिए उस दर्द की तासीर जिसने गुझियों की थाली और सेवइयों के डोंगों की अदला-बदली रोक दी. जिसने हर शाम नुक्कड़ पर मिलने वाले दोस्तों की यारियां छीन लीं. जिसने मुसलमान भाइयों से उनकी हवेलियां हथिया लीं. जिसने हिन्दुओं के लिए लाहौर की गलियों की रोशनी ख़त्म कर दी. हम ये शब्द लिख-पढ़ रहे हैं, मगर हज़ारों परिवारों ने ये सब सहा है. क्या आप नहीं सोचते कि ये सब क्यों हुआ. कैसे हुआ. कब हुआ. हम सब जानते हैं कि 15 अगस्त को देश आज़ाद हुआ. लेकिन देश के बंटवारे का ज़हरीला फैसला आज के दिन यानी 18 जुलाई 1947 को ले लिया गया था. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम
18 जुलाई 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम को स्वीकृति मिली. इसकी नींव माउंटबेटन योजना ने रखी थी. इसमें देश की आज़ादी के बदले अंग्रेज़ों ने इसके दो टुकड़े करने की ठानी थी. इस काम के लिए चुना गया था लंदन के वकील सर सिरिल रेडक्लिफ को. वो रेडक्लिफ जो कभी भारत नहीं आए थे. जिन्हें न यहां की संस्कृति की जानकारी थी न तहज़ीब का इल्म था. जो सिर्फ एक नक्शे पर लकीर खींचने आ रहे थे. उन्हें नहीं पता था कि वो दुनिया का बेहद स्याह फैसला लेने जा रहे हैं. इस बंटवारे के तहत हिन्दू बहुल इलाके भारत में और मुस्लिम बहुल इलाके पाकिस्तान में शामिल किए जाने थे. देश के कई राज्यों को आज़ादी दी गई कि वो अपना पाला चुन लें. अधिकतर राज्यों ने धर्म के आधार पर देश चुना. विभाजन के बाद पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र में नए सदस्य के रूप में शामिल किया गया और भारत ने ब्रिटिश भारत की कुर्सी संभाली. कौन लोग शामिल थे? अंग्रेज़ों ने फूट डालो-राज करो की नीति के तहत 1906 में मुस्लिम लीग को मान्यता दे दी. उस समय लीग के लगभग सभी सदस्य मुसलमानों के ऊंचे तबके से आते थे. इसी तरह 1915 में बनी हिन्दू महासभा भी हिन्दुओं के ऊंचे तबके की बपौती थी. मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा-आरएसएस अपने-अपने ‘राष्ट्रों’ पर नियंत्रण स्थापित करना चाहती थीं. कांग्रेस और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का लक्ष्य आज़ादी पाना था. एक देश के लिए लक्ष्य अलग-अलग होंगे तो राहें मुश्किल ही होंगी. इसके बाद पंडित नेहरू ने 1937 में मुस्लिम लीग के सदस्यों को उत्तरप्रदेश की सरकार में शामिल करने से इनकार कर दिया. इस इनकार ने चोट का काम किया. लीग में गुस्सा बढ़ रहा था. 1945 में शिमला सम्मेलन हुआ. इसमें वायसराय लॉर्ड वेवैल के साथ देश के बड़े नेताओं ने हिस्सा लिया. हालांकि यह सम्मेलन विफल रहा था. जिन्ना भी इस सम्मेलन में शामिल थे. ये वही जिन्ना हैं जिन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर देते हुए मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौता करवाया था. लेकिन कांग्रेस से नाख़ुशी के बाद जिन्ना ने अलग देश की मांग कर ली. क्योंकि उन्हें लगने लगा कि भारत में मुसलमानों के साथ परायों जैसा बर्ताव हो रहा है. जसवंत सिंह ने अपनी किताब ‘जिन्ना: इंडिया पार्टीशन इंडिपेंडेंस’ में जिन्ना को एक धर्मनिरपेक्ष नेता बताया है. उनका कहना है कि जिन्ना को अकारण ही खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. -एक मीटिंग में नेहरू, माउंटबेटेन और जिन्ना.
किसने विरोध किया?
विभाजन के लिए कई नेता तैयार नहीं थे. लेकिन निज़ामों ने विरोध करने वालों की एक न सुनी. आजादी के पूर्व तक बाबा साहेब अंबेडकर राजनीति में नहीं थे. दलितों के उत्थान के लिए लगातार काम रहे थे. लेकिन उनकी नज़र सियासत पर थी. वे लगातार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उनके बड़े नेताओं महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू की गलत और सही नीतियों की आलोचना कर रहे थे. मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना को भी उन्होंने नहीं बख्शा था. उन्होंने विभाजन का कड़ा विरोध किया था. वो देश को अखंड देखना चाहते थे. उन्होंने इस मुद्दे पर एक किताब ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ भी लिखी. क्या बंटा? ब्रिटिश भारत की संपत्ति को दोनों देशों के बीच बांटा गया. माउंटबेटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को 55 करोड़ रुपये देने की सलाह दी थी. भारत सरकार इसे टालती रही लेकिन गांधीजी ने अनशन कर यह राशि पाकिस्तान को दिलाई. इस वजह से कई लोग गांधी की आलोचना करते रहे हैं. बंटवारे के बाद क्या हुआ विभाजन के बाद कई महीनों तक दोनों नए देशों के बीच लोगों की आवाजाही हुई. भारत से कई मुसलमानों ने डर और अपने मुल्क की चाहत में पलायन किया तो पाकिस्तान से हिन्दुओं और सिखों ने अपना घर छोड़ दिया. जो नहीं छोड़ना चाह रहे थे उन्हें हालातों ने मजबूर कर दिया. लूटपाट, हत्याएं, बलात्कार जैसी तमाम घटनाओं ने इस तारीख को लोगों के ज़ेहन में काली स्याही पोत दी. कुछ अपनी दोस्ती रिश्तेदारी भूल गए, कुछ इसे बचाने के लिए जान से गए. बहन-बेटियों की लूट हुई. जिसका दंश लोग अबतक भूल नहीं पाए हैं. सीमा रेखाएं तय होने के बाद लगभग 1.45 करोड़ लोगों ने सीमा पार करके अपने ‘नए देश’ में शरण ली. 1951 की विस्थापित जनगणना के अनुसार विभाजन के बाद 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गए और 72,49,000 हिन्दू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए. पंजाब और लाहौर ने सबसे ज़्यादा दर्द सहा. आज भी न जाने कितनी कहानियां अनसुनी हैं. आज भी न जाने कितनी दास्तानों को लफ़्ज़ नहीं मिल सके. आंकड़ों की मानें तो इस बंटवारे में 20 लाख लोगों की जान गई. लेकिन ये सिर्फ आंकड़ा है. ट्रेनों में लाशों का जत्था, मोहल्लों में आगजनी और गांवों के पलायन में गई जानों की ठीक गिनती कर पाना नामुमकिन है.
फिल्मों में विभाजन
इस त्रासदी पर देश-दुनिया पर कई उपन्यास लिखे गए. कहानियां गढ़ी गईं. फिल्में-डॉक्युमेंट्री बनाई गईं. यशपाल की ‘झूठा सच’, भीष्म साहनी की ‘तमस’, अमृता प्रीतम की ‘पिंजर’, खुशवंत सिंह की ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ और सलमान रुश्दी की ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’ (आधी रात की सन्तानें) में जो दर्द दिखाने की कोशिश हुई है वो एक नमूना भर है. पिंजर को फिल्म और तमस को दूरदर्शन का धारावाहिक भी बनाया गया. इसके अलावा ‘गरम हवा’, दीपा मेहता की ‘अर्थ’ (ज़मीन), कमल हसन की ‘हे राम’ भी भारत के विभाजन को दिखाती है. एक पंजाबी लड़की की जबरन मुसलमान के साथ शादी, लाहौर के ज़मीदार का भारत आकर पैसे-पैसे को तरसना, अपने एक साल के बच्चे को खो देना, पूरा का पूरा परिवार क़त्ल हो जाना, और ऐसे न जाने कितने हालात उस वक़्त एक साथ गुज़र रहे थे. इन सब को किसी फ़िल्म में समेट पाना मुमकिन ही नहीं है.